डिफेमेशन केस – क्या है, कैसे लड़ें और क्या सीखें

When working with डिफेमेशन केस, किसी व्यक्ति या संस्थान की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाने वाले बेझिझक बयान या लेख को कानूनी रूप से चुनौती देने की प्रक्रिया. Also known as मानहानि मामला, it कानून, सिविल और आपराधिक धारा जो मानहानि को नियंत्रित करती है और मीडिया, प्रकाशन, टीवी, डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म आदि के माध्यम से सूचना पहुँचाने वाला साधन के बीच गहरा टकराव बनाता है. इस टकराव में डिजिटल साक्ष्य, इंटरनेट रिकॉर्ड, स्क्रीनशॉट, ई‑मेल आदि जो केस में महत्वपूर्ण प्रमाण बनते हैं का भी बड़ा रोल रहता है.

पहला सवाल अक्सर यही आता है – "डिफेमेशन केस कब बनता है?" अगर कोई बयान तथ्य के बजाय अनुमान, झूठ या अपमानजनक टिप्पणी हो, और वह सार्वजनिक रूप से जारी किया गया हो, तो यह केस बन सकता है. यहाँ दो मुख्य प्रकार होते हैं: सिविल मानहानि, जहाँ पीड़ित आर्थिक हर्जाना या मुआवजा चाहता है, और आपराधिक मानहानि, जहाँ आरोपी को दंड का सामना करना पड़ता है. दोनों में न्यायालय को यह दिखाना पड़ता है कि बयान ग़लत था और इससे प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचा। इस प्रक्रिया में साक्ष्य एकत्रित करना सबसे अहम कदम है.

डिफेमेशन केस में साक्ष्य जुटाने की रणनीति अक्सर तीन चरणों में बाँटी जाती है: पहला, मूल पोस्ट या लेख का मूल संस्करण सुरक्षित करना; दूसरा, प्रकाशित तारीख, लेखक, और दर्शकों की पहुँच का डेटाबेस बनाना; तीसरा, विशेषज्ञों की राय या तथ्य‑जांच रिपोर्ट को जोड़ना. इन तीनों चरणों के बीच “डिजिटल साक्ष्य” की वैधता का परीक्षण करना जरूरी है – जैसे टाइम‑स्टैम्प, IP पता, और एन्क्रिप्शन की स्थिति. अगर आप सोशल मीडिया पर हुए घोटाले को चुनौती दे रहे हैं, तो स्क्रीनशॉट सिर्फ़ क़ीमत नहीं रखता; उसे हार्ड ड्राइव या क्लाउड में मूल फाइल के साथ रखें, ताकि कोर्ट में ‘अपरिवर्तित’ साबित हो सके.

दूसरी ओर, मीडिया की भूमिका को समझना भी उतना ही जरूरी है. मानिए एक टॉप‑लेवल समाचार चैनल ने एक स्कैंडल को तेज़ी से पेश किया, लेकिन बाद में साक्ष्य मिलते ही वह मानहानि के आरोप में फँस गया. इस तरह के मामलों में अदालत अक्सर ‘जिम्मेदारी की सीमा’ देखती है – क्या रिपोर्टर ने सत्यापन किया, क्या उसने निष्पक्षता बनाए रखी, और क्या उसने बचाव के लिए ‘फेयर रिपोर्टिंग’ का बहाना इस्तेमाल किया। जब आप केस दर्ज कराते हैं, तो आपको यह बताना होगा कि उपलब्ध तथ्य आपके पक्ष में हैं और मीडिया ने जान‑बूझ कर गलत जानकारी फैलाई। यही कारण है कि कई मामलों में ‘सिविल मुकदमा’ की बजाए ‘आधिकारिक नोटिस’ पहले भेजा जाता है, जिससे सामने वाले को जवाब देने का मौका मिले.

डिफेमेशन केस की सफलता में ‘समय’ भी अहम है. भारत में मानहानि की दायर करने की सीमा 12 महीने की है, और देर होने पर दावा अस्वीकार हो सकता है. इसलिए प्राथमिक रूप से एक कानूनी सलाहकार से परामर्श करना चाहिए और जल्दी‑जल्दी प्री‑लीगल नोटिस भेजना चाहिए. निष्कर्ष के तौर पर, केस चलाने की लागत, संभावित पेंशन, और सार्वजनिक छवि को ध्यान में रखकर ही कदम उठाना चाहिए. कुछ मामलों में समझौता करके ही बेहतर परिणाम मिलते हैं, क्योंकि लम्बे मुकदमे में सार्वजनिक ध्यान अक्सर प्रतिकूल हो सकता है.

अब आप तैयार हैं अपने ‘डिफेमेशन केस’ की जाँच‑परख करने के लिए. नीचे आपको हाल के कुछ उल्लेखनीय केसों की सूची मिलेगी – चाहे वह डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर फर्जी खबरों का मामला हो, या परम्परागत मीडिया की बड़ी गलती. इन लेखों में हम प्रक्रिया, अदालत के फ़ैसले, और वास्तविक परिणामों को विस्तार से दिखाते हैं, ताकि आप अपने केस की रणनीति बना सकें या बस अपडेट रह सकें. आगे बढ़िए, पढ़िए और अपनी प्रतिष्ठा की सुरक्षा में कदम उठाइए.

शाहरुख़ खान और नेटफ़्लिक्स के खिलाफ समीऱ वंकेडे ने 2 करोड़ का डिफेमेशन केस दर्ज किया
26, सितंबर, 2025

शाहरुख़ खान और नेटफ़्लिक्स के खिलाफ समीऱ वंकेडे ने 2 करोड़ का डिफेमेशन केस दर्ज किया

पूर्व एनसीबी अधिकारी समीऱ वंकेडे ने दिल्ली हाई कोर्ट में शाहरुख़ खान, उनके बेटे आर्यन खान, रेड चिलीज़ एंटरटेनमेंट और नेटफ़्लिक्स के खिलाफ 2 करोड़ के मानहानि मुकदमे की याचिका दायर की। वे दावा करते हैं कि वेब‑सीरीज़ ‘द बैड्स ऑफ़ बॉलीवुड’ में उनके चित्रण को झूठा, घृणास्पद और संस्थागत विश्वास को घटाने वाला बताया गया है। कोर्ट की पूछताछ में केस की क्षेत्राधिकार और दावे की वैधता पर गंभीर सवाल उठे हैं। वंकेडे ने नुकसान‑भरपाई को टाटा मेमोरियल अस्पताल में कैंसर उपचार के लिए दान करने की इच्छा जताई है।

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